बीज जो भविष्य बोते हैं
हमने खेतों में अन्न नहीं, लालच बोया है… और अब उसी का फल काट रहे हैं – बीमारियाँ, ज़हर, और सूखी धरती…” यह बीज नहीं आने वाली पीढ़ियों की थाली में परोसा गया भविष्य है।” जरूरत से ज्यादा कैमीकल इस्तेमाल, आने वाली पीढ़ी को जहर भरा पानी, फल, सब्जियां और पता नहीं क्या-क्या देकर जाएगा।
“ये मिट्टी सिर्फ फसल नहीं उगाती, ये हमारी पीढ़ियों को पालती है। अगर हम इसे ज़हर देंगे, तो कल ये हमारे बच्चों को कुछ नहीं दे पाएगी। जो हम बोते हैं, वही हमारे बच्चे काटते हैं – इसलिए ऐसा बीज बोओ, जो भविष्य को स्वस्थ और सुरक्षित बनाए।”
हम बात कर रहें है एक हरियाली से घिरे हुए हरे भरे गाँव की, जहाँ किसान अपनी मिट्टी से उतना ही प्रेम करते हैं जितना अपने बच्चों से। इस गाँव में रहते थे काका, जिनकी उम्र 70 पार हो चुकी है, लेकिन आज भी उनके चेहरे पर मिट्टी की सादगी और अनुभवों की चमक देखी जा सकती है।
काका के अपने गाँव से पुरानी जैविक खेती करते आ रहे हैं। उनके दादा ने उन्हें सिखाया था कि “धरती माँ को रसायनों से ज़हर मत दो, वो तुम्हें रोटी देती है, उसका कर्ज चुकाना सीखो।” यही बात काका अपने बेटे और पोते को भी सिखाते, लेकिन गाँव के बाकी किसान उन्हें अक्सर पुराने जमाने का कहकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
समय के साथ, आधुनिकता (Modernity) की आंधी गांव में भी पहुँची। खेती में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का चलन बढ़ा। किसान कम समय में ज़्यादा उपज देखकर खुश हो गए। शहरों से व्यापारी आए, बड़ी-बड़ी कंपनियों ने प्रचार किया – “केमिकल डालो, दोगुनी फसल पाओ।” किसानों ने जैविक बीजों की जगह हाइब्रिड बीज बोए, और देखते ही देखते गाँव का रंग-रूप बदल गया।
शुरुआत में तो सब अच्छा लगा- फसलें बड़ी, मुनाफा ज़्यादा। लेकिन धीरे-धीरे इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे। खेतों की मिट्टी कठोर हो गई, कुओं और नालों का पानी बदबूदार हो गया। कई किसानों को त्वचा की बीमारियाँ होने लगीं। सबसे चिंताजनक बात यह थी कि गाँव के बच्चों को साँस लेने में तकलीफ, एलर्जी और कमजोरी की शिकायतें होने लगीं।
गाँव में एक स्वास्थ्य कैंप लगाया गया। डॉक्टरों ने बताया कि जल और मिट्टी में रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुँच गई है। बच्चों की बीमारी का कारण वही कीटनाशक और रासायनिक खादें थीं, जिनका उपयोग खेतों में धड़ल्ले से हो रहा था।
यह सुनकर गाँव में सन्नाटा छा गया। लोगों को पहली बार अपनी गलती का एहसास हुआ।
उसी समय किसी ने कहा,
“काका के खेत तो अब भी वैसे ही हैं – साफ़, हरे-भरे। उनके पोते को तो कभी खाँसी तक नहीं हुई।”
गाँव के लोग रामदीन काका के पास पहुँचे। उनमें से कई की आँखों में आँसू थे। उन्होंने कहा,
“काका, आपने जो कहा था, हम समझ नहीं पाए। अब समझ आ गया है। हमें माफ कर दो और सिखा दो – हमें भी वही खेती करनी है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए वरदान बने, अभिशाप नहीं।”
काका मुस्कराए। उन्होंने मिट्टी को हाथ में उठाया और बोले,
“ये मिट्टी सिर्फ फसल नहीं उगाती, ये हमारी पीढ़ियों को पालती है। अगर हम इसे ज़हर देंगे, तो कल ये हमारे बच्चों को कुछ नहीं दे पाएगी। जो हम बोते हैं, वही हमारे बच्चे काटते हैं – इसलिए ऐसा बीज बोओ, जो भविष्य को स्वस्थ और सुरक्षित बनाए।”
इसके बाद गाँव ने सामूहिक निर्णय लिया – अब केवल जैविक खेती होगी। काका ने सबको सिखाया कि कैसे देसी बीजों का प्रयोग किया जाए, कैसे गोबर खाद से मिट्टी को ताकत मिले, और कैसे प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर खेती की जाए।
कुछ वर्षों बाद, गांव फिर से हरा-भरा हो गया। खेतों में नमी लौटी, जलस्तर सुधरा, और सबसे बड़ी बात – गाँव के बच्चों की हँसी वापस आ गई।
लालच का रास्ता हमें तात्कालिक लाभ तो देता है, लेकिन दीर्घकालीन हानि का कारण बनता है। जैविक खेती न केवल भूमि को स्वस्थ रखती है, बल्कि हमारे आने वाले पीढ़ियों को एक स्वच्छ, सुरक्षित और समृद्ध भविष्य भी देती है।