“आईना”
एक छोटे से शहर के बीचों बीच एक पुराना घर था । इस घर में एक बहुत बड़ा आईना था, इस आईने की एक बहुत बड़ी खासियत थी। इसमें में लोग अपना चेहरा नहीं, अपना असली चेहरा देखने आते थे। इस आईने में जब भी कोई झाँकता, उसे अपना वही रूप दिखता, जो समाज ने उसके अंदर भर दिया था। डर, नफरत, लालच, दिखावा, और कभी-कभी, प्यार भी।
लोग आते, खुद को देखते, कुछ हँसते, कुछ डर जाते। कुछ उस आईने को झूठा कहते और आगे बढ़ जाते। लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो ठहर जाते, खुद को घूरते रहते, और धीरे-धीरे उन्हें अपनी आंखों के नीचे छिपा सच दिखाई देने लगता। वो सोचने पर मजबूर हो जाते की इस चेहरे के पीछे एक सच्चाई यह भी है। अगर यह सच्चाई है तो यह चेहरा किसका है कुछ लोगों को तो यह बात सपने में सताने लगी।
एक दिन, वहाँ एक बच्चा आया। उसने आईने में झाँका और मुस्कराया। “तुम्हें क्या दिखा?” एक बूढ़ी औरत ने पूछा। बच्चा बोला, “मुझे वो दिखा जो मैं बनना चाहता हूँ, और जो मुझे बनने नहीं दिया जा रहा।” बूढ़ी औरत मुस्कराई। “तुम शायद पहले हो जिसने ये आईना समझा। ये समाज को नहीं दिखाता, ये तुम्हें दिखाता है कि समाज तुम्हें क्या नहीं बनने दे रहा।” बच्चा चला गया, लेकिन उस दिन के बाद, आईना घर में लोग खुद को नहीं, इस चेहरे के पीछे का असली चेहरा देखने आने लगे और नए-नए सवालों को अपने साथ ले जाते।
हिंदआर्टिस्ट / www.hindartist.com