“युद्ध”
जब कोई जवान युद्ध में जाता है, तो वो सिर्फ बंदूक लेकर नहीं जाता –
वो माँ की दुआओं की ढाल लेकर जाता है,
पिता की उम्मीदों की तलवार लेकर जाता है,
और उस मिट्टी की सौगंध लेकर जाता है,
जिसे उसने बचपन में मुट्ठी में भरकर खेला था।
हर गोली जो चलती है, उसका एक सिरा दुश्मन के सीने में होता है,
और दूसरा किसी माँ की छाती में।
युद्ध खत्म हो जाता है, लेकिन
कुछ घरों की दीवारें हमेशा के लिए खामोश हो जाती हैं।
वो चेहरे अख़बारों में ‘शहीद’ कहलाते हैं,
मगर उन घरों में आज भी वो बेटे, भाई और बाप हैं –
जो दरवाज़ा खोलकर फिर कभी लौटकर नहीं आए।
ये कहानी उन्हीं की है जो मिट गए, पर झुके नहीं। जो लौटे नहीं, पर अमर हो गए।
यह कहानी कमला देवी की है, जिनका बेटा कैप्टन आरव वर्मा सीमा पर शहीद हो गया। पूरा गांव शोक में डूबा गया, और सरकार वीरता सम्मान की तैयारी में लगी है।
लेकिन कमला देवी ना रोई, ना सफेद साड़ी पहनी, ना किसी को शोक मनाने दिया।
लोग उन्हें पत्थर दिल कहने लगे- “कैसी माँ है जो बेटे की मौत पर आँसू भी नहीं बहा रही।”
पर असली रहस्य तब खुलता है जब एक पत्रकार उनके घर पहुंचती है एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए। धीरे-धीरे बातचीत में पता चलता है कि कमला देवी हर रात अपने बेटे को एक चिट्ठी लिखती हैं- जैसे वो अब भी ड्यूटी पर हो।
वो अपने बेटे की शहादत को “समाप्ति” नहीं, बल्कि “शुरुआत” मानती हैं- एक जागरूकता की शुरुआत।
वो गाँव के बच्चों को राष्ट्रगान, संविधान, और वीरता की कहानियाँ पढ़ाना शुरू कर देती हैं। उनका कहना है:
“मेरा बेटा चला गया, लेकिन उसका झंडा अभी झुका नहीं है। जब तक इस देश के बच्चे उठते रहेंगे, तब तक वो ज़िंदा है।”
माँ का ग़म निजी है, लेकिन उसका जवाब समाजिक है। पत्रकार के नज़रिए से कहानी में खुलते हैं कई भावनात्मक परतें। अंत में गांव का वही स्कूल बेटे के नाम पर एक वीरता केंद्र में बदला गया।
जहां किताबों के साथ-साथ देशभक्ति भी पढ़ाई जाती थी। जहां हर शुक्रवार को कमला देवी खुद आकर बच्चों को संविधान की शपथ दिलवाती है।
गांव के उस स्कूल की दीवारें अब पहले जैसी नहीं रहीं। जहां पहले बच्चों को सिर्फ अक्षर सिखाए जाते थे, अब वहां हर कक्षा में देश का नक्शा, तिरंगा और संविधान की प्रस्तावना टंगी होती है। किताबों के साथ-साथ अब वहाँ बच्चों के दिलों में भी कुछ लिखा जा रहा है-
देश के लिए कुछ करने का सपना। हर शुक्रवार, सुबह की प्रार्थना सभा कुछ खास होती है। बच्चे कतार में खड़े होते हैं – हाथ सीने पर, आँखों में चमक लिए। और सामने खड़ी होती हैं कमला देवी – तिरंगे के साथ। ना उनके चेहरे पर ग़म का कोई साया होता है, ना ही कोई औपचारिकता- सिर्फ एक माँ, जो अपने बेटे का सपना पूरा कर रही है। वो बच्चों को संविधान की शपथ दिलवाती हैं।
“हम भारत के नागरिक… अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे, देश की रक्षा करेंगे…” और हर बच्चा उस शपथ को ऐसे दोहराता है जैसे वो खुद आरव बन गया हो। दीवार पर टंगी आरव की तस्वीर के नीचे हर शुक्रवार एक दीया जलता है। पर वो दीया सिर्फ एक रस्म नहीं, एक रौशनी है-
जो कमला देवी हर दिल में बाँटती हैं। दूसरी माँएं जहाँ अपने बेटे की तस्वीर के सामने बैठकर आँसू बहाती हैं, वो माँ उस तस्वीर को देख मुस्कराती हैं- जैसे कह रही हों, “तेरा काम अधूरा नहीं जाएगा, मैं हूँ ना!” वो अपने बेटे के सपनों को अकेले नहीं जी रहीं, बल्कि उन सपनों को एक मशाल की तरह सबमें बाँट रही हैं- जिनसे अब पूरा गांव रोशन हो रहा है।
हिंदआर्टिस्ट / www.hindartist.com