कभी-कभी ज़िंदगी किसी बंद कमरे जैसी लगती है जहाँ खिड़कियाँ तो हैं, पर रोशनी नहीं आती। उस कमरे में कोई ख्वाब धीरे-धीरे धूल खा जाते हैं, और अपनी ही पहचान अपने लिए एक बोझ बन जाती है। लेकिन जब हम साहस करते है जब हम बंद कमरे को खोलने की कोशिश करते हैं तो खुद को अपनाने की जो रोशनी अपने भीतर आती है। यही रोशनी बन जाती है “नई ज़िंदगी की चमक”।
यह एक ऐसे सफ़र की कहानी है, जहाँ पहचान को लेकर डर, अस्वीकार और दुख के अंधेरे से निकलकर एक आत्म-स्वीकृत जीवन की और पहला क़दम रखा जाता है। यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उन सबकी है जो छुप-छुपकर जीते हैं, और एक दिन खुलकर मुस्कराना चाहते हैं। जैसे बरसों बाद कमरे में दाखिल होती रोशनी।
आरव का छोटे से गांव में एक पुराना सा मकान था, जिसकी दीवारों का रंग समय के साथ फीका पड़ चुका था, ठीक वैसे ही जैसे आरव की मुस्कान। बचपन में ही अपने आप को अलग महसूस करता था, लेकिन यह फर्क क्या था, यह शब्दों में कह पाना उसके लिए कभी आसान नहीं रहा। उसे लड़कियों के कपड़े पसंद आते, पुराने हिंदी गानों पर नाचना अच्छा लगता, और जब भी वह आईने में खुद को देखता, उसे लगता शायद ये “वो” नहीं है, जो वो होना चाहता है।
समाज के नियमों में ‘शायद’ की कोई जगह नहीं होती। पिता उसे “मर्द” बनने की नसीहत देते, माँ खामोशी से आँसू पोंछ लेती और स्कूल के लड़के उसका मज़ाक उड़ाते । “हिजड़ा”, “नामर्द”, “चल इधर से”। धीरे-धीरे आरव ने बोलना छोड़ दिया। वह किताबों की दुनिया में छुप गया, जहाँ कल्पना में उसे कोई जज नहीं करता था। कॉलेज के बहाने जब आरव शहर आया, तो एक नई हवा ने उसका स्वागत किया। यहां लोग रंग-बिरंगे थे, कपड़ों में, सोच में, रिश्तों में। यहां उसने पहली बार प्राइड परेड देखी। रंगबिरंगे झंडों के साथ लोग खुलकर हँस रहे थे, नाच रहे थे। यह नज़ारा उसके लिए सपना था। और उस सपने के बीच उसे मिला, सैम।
सैम एक कलाकार था, जो दीवारों पर रंगों से कहानियाँ लिखता था। आरव की आँखों में कुछ था, जो सैम ने तुरंत पहचान लिया। वही छुपा हुआ दर्द, वही पहचान की तलाश। दोनों के बीच दोस्ती हुई, फिर धीरे-धीरे एक रिश्ता पनपा, जिसे नाम देने से पहले ही वो समझ चुके थे।
सैम ने आरव को एक असलियत स्वीकारने को कहा। उसने कहा, “अगर तुम खुद से प्यार नहीं करोगे, तो किसी और की मोहब्बत कैसे संभाल पाओगे?”
उस रात आरव ने खुद को पहली बार “आरवी” कहा, उसका नया नाम, उसकी नई पहचान। वो ट्रांसजेंडर था, अब उसे ये कहते हुए डर नहीं लगता था।
इस नई ज़िंदगी के साथ नई चुनौतियाँ भी थीं। जब आरवी ने अपने माता-पिता को फोन पर बताया, तो पिता ने गुस्से में कहा, “तू मेरा बेटा नहीं है।” माँ चुप रही, जैसे हमेशा से।
आरवी टूटा जरूर, लेकिन बिखरा नहीं। उसने अपनी कहानी लिखी शब्दों में, रंगों में, मंचों पर। उसने ट्रांसजेंडर युवाओं के लिए एक सपोर्ट ग्रुप शुरू किया, जहाँ लोग अपनी कहानियाँ सुनाते, और बदले में सिर्फ एक चीज़ मिलती, अपनापन। समय के साथ उसका काम पहचाना गया। एक दिन उसे बुलावा आया। उसकी बड़े न्यूज पेपर और चैनलों पर इंट्रव्यू हुए। जिससे लोगो में उसका चहरा इतना उभरा की वो मोटिवेशनल स्पीकर के तौर पर लोगों को अपनी जिंदगी के वो गहरे राज के बारे में बताता और रो पड़ता।
अब उसकी चाल में डर नहीं, आत्मविश्वास था। वही गलियाँ, वही चेहरे, लेकिन अब उनके भाव बदल चुके थे। जहां भी जाता उसका स्वागत किया जाता। आरवी ने मंच पर खड़े होकर कहा:
“मैं आरव था, जिसे आप सबने कभी नहीं समझा। आज मैं आरवी हूँ , खुद को जान चुका, मान चुका। मेरी चमक किसी से माँगी नहीं है, यह मेरी अपनी है।”
भीड़ में किसी ने धीमे से ताली बजाई, फिर दूसरी, फिर पूरी सभा गूंज उठी, और पीछे एक कोने में, माँ खड़ी थी, आँखों में आँसू लिए।
आरवी मुस्कराया। उसके चेहरे पर जो चमक थी। वो साहस और प्यार की चमकती धूप थी, जो अब कभी फीकी नहीं पड़ने वाली थी।
हिंदआर्टिस्ट / www.hindartist.com