कफन खोलती रही वो माँ हर चेहरे में अपने लाल को ढूंढती,
पर वहाँ कोई नाम नहीं था, बस युद्ध के हस्ताक्षर थे।
जब भी युद्ध होता है तो सिर्फ़ सैनिक नहीं मरते, है। नस्ल, धर्म, राष्ट्र के नाम पर जो मौतें होती है माँओं की कोख सूनी हो जाती है, बच्चों की मुस्कानें खो जाती हैं, और पुरानी घरों में नई दिवारें खींच दी जाती है धर्म की, मगर जीत हुई किसकी आज तक नहीं पता चला…
हम बात कर रहे हैं गाजा युद्ध की जो तब शुरू हुआ जब इजरायल ने 27 दिसंबर 2008 को गाजा पट्टी में एक बड़ा सैन्य अभियान शुरू किया, जिसका घोषित उद्देश्य दक्षिणी इजरायल पर हमास के रॉकेट हमलों और गाजा में हथियारों की तस्करी को रोकने के लिए किया गया था। हाल ही में इजराइल ने गाजा के हमास में बड़े हमले किए जिसमें नाइटेड नेशन्स ने चेतावनी दी है कि अगर गाजा को तुरंत मदद न मिली तो अगले 48 घंटों में लगभग 14000 बच्चों की मौत हो सकती है।
सन 2014 में, फिलिस्तीनी कवि खालिद जमा ने भावुक होकर इजरायल के गाजा पट्टी पर बमबारी के बीच “rascal children of gaza” एक मार्मिक कविता लिखी थी
Oh rascal children of Gaza
You who constantly disturbed me with your screams under my window,
You who filled every morning with rush and chaos,
You who broke my vase and stole the lonely flower on my balcony,
Come back –
And scream as you want,
And break all the vases,
Steal all the flowers,
Come back,
Just come back…
अरे गाजा के बदमाश बच्चों
तुम जो मेरी खिड़की के नीचे अपनी चीखों से मुझे लगातार परेशान करते थे,
तुम जो हर सुबह को भागदौड़ और अराजकता से भर देते थे,
तुम जो मेरा फूलदान तोड़ देते थे और मेरी बालकनी पर अकेला फूल चुरा लेते थे,
वापस आओ –
और जितना चाहो चिल्लाओ,
और सारे फूलदान तोड़ दो,
सारे फूल चुरा लो,
वापस आओ,
बस वापस आओ…
“धुएँ में बचपन”
जहाँ खिलौनों की जगह
बारूद ने ले ली हो,
जहाँ स्कूल की घंटियों की जगह गोलियों की गूंज हो,
वहाँ बचपन पलता नहीं
… राख बन जाता है।
इन बच्चों के लिए गहरे नीला आसमान का रंग अब नीला नहीं रहा। वह धुएँ और धमाकों के काले गुबार से भर चुके है। हर दिन अपने अब्बू के लिए इंतजार करना, स्कूल से जल्दी लौट आना, मां की प्यारी सी आवाज आज तेरा मनपसंद खाना बनाऊंगा।” वो प्यारी सी मुस्कराहट, जैसे हर बच्चा मुस्कराता है।
नन्हे से बचे दुनिया की क्रूरता से बेखबर। मगर वह स्कूल लौटते वक़्त जिस गली से रोज की तरह गुज़रा करते, वहीं एक धमाका हुआ। तीन दिन बाद, मलबे से एक हाथ मिला, छोटा सा, मासूम सा। माँ की कोख में शांत पड़ा हुआ माँ बेबस, अब्बू ने सिर दीवार से टकराया। “ये हाथ ही तो पकड़कर उसे चलना सिखाया था…” बाक़ी शरीर नहीं मिला, शायद हवा में उड़ गया। मगर वो हाथ, जैसे दुनिया को आखिरी बार छूना चाहता हो। गाज़ा की गलियाँ खामोश थीं, पर उस खामोशी में हजारों बच्चें रो रहे थे और एक सवाल था राख के ऊपर।
“क्या वाकई कोई भी जीतता है इस युद्ध में ?”
इसलिए हम बोलतें है
हारी तो सिर्फ जिंदगी…
For these children, the deep blue sky is no longer blue. It is filled with smoke and black clouds of explosions. Waiting for their father every day, returning early from school, mother’s sweet voice “Today I will cook your favorite food.” That sweet smile, like every child smiles.
The little one was unaware of the cruelty of the world. But on his way back to school, he used to pass through the same street, where an explosion took place. Three days later, a hand was found in the rubble, small, innocent. Lying quietly in the mother’s womb, the mother helpless, father hit his head against the wall. “It was this hand that I held and taught him to walk…” The rest of the body was not found, perhaps it flew away in the air. But that hand, as if wanted to touch the world for the last time. The streets of Gaza were silent, but in that silence thousands of children were crying and there was a question above the ashes.
“Does anyone really win in this war?”
That’s why we say
Only life lost…
हिंदआर्टिस्ट / www.hindartist.com